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Showing posts from December, 2018

अंधेरे रहस्य (भाग 5)

******************************************                                    भाग 5 ------------------------------------------------------------------- राजू चाचा से सबकुछ बताने के बाद किसी समाधान की उम्मीद में इस तरह बैठा था जैसे किसान बादल के इंतजार में, प्यासा पानी के इंतजार में, प्रेमी प्रेमिका के इंतजार में, चकोर चाँद के इंतजार में, विरहिणी पिया के इंतजार में । उसे पूरा विस्वास था कि इस समस्या का समाधान जरूर होगा और कैसे भी करके उसे बाहर निकाल ही लेंगे ।      इधर राजू चाचा शायद रवि के व्यवहार पर अंदर ही अंदर हँस रहे होंगे कि क्या मूर्ख लड़का हैं, तभी तो उनके जबाब ने रवि के उम्मीद को सातवें आसमान से पाताल लोक में फेंक दिया । कहाँ उम्मीद थी कि इस चक्रव्यूह से बचा लेंगे लेकिन जबाब उनका कुछ और ही था । राजू :- अरे बुड़बक, जब लड़की सामने से ऑफर दे रही हैं तो तू पीछे भाग रहा है । अरे अब तेरी उम्र हो गई है, अब तू जवान हो रहा है । रवि :- चाचा, आप यह क्या बोल रहे हैं ? आपको अंदाजा भी...

अंधेरे रहस्य (भाग 4 )

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अंधेरे रहस्य (भाग 3)

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अंधेरे रहस्य (भाग 2)

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अंधेरे रहस्य (भाग 1)

जिंदगी कितना कुछ सिखाती है, और बिना कुछ बताए कितना कुछ समझने के लिए छोड़ जाती हैं । इन्हीं सब से रूबरू कराने के लिए एक कहानी आपके बीच रख रहा हूँ । आपके प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा । ******************************************                                   भाग 1 ------------------------------------------------------------------- जिंदगी और मौत के बीच फासले इतने कम होते है कि मनुष्य की एक गलती से किसी की जान जा सकती हैं, या वह जिंदगी भर के लिए मानसिक विकलांग हो सकता हैं । आज की युवा पीढ़ी पता नहीं किस ढंग से जीना चाहती हैं, जहाँ इंसान की कीमत दूसरे के लिए नगण्य हैं । विज्ञान के तरक़्क़ी के साथ साथ जब कोई भी लड़का या लड़की जवानी की दहलीज पर पहुँचते हैं तब एक दूसरे के लिए आकर्षण होना स्वाभाविक हैं । नई पीढ़ी को जो सबसे ज्यादा  जो चीज नपुंसकता (अमानवीयता) के तरफ जो चीज धकेल रही हैं वह है इश्क़ । जी हाँ, इश्क़ । जितना पवित्र यह शब्द हैं, उतना पवित्र अब यह हैं नहीं । मानवीय संवेदनाओं का गला घोंटकर अब इश्क़...

मैं कौन हूँ

शान्त हैं जिंदगी के पल और शांत हैं गंगा का जल भी हिलोरें उठ रही थी, केवल किनारों पर वहीं बैठा ढूंढ रहा था खुद में खुद को आखिर कौन हूँ मैं ...... जबाब के उधेड़बुन में जिंदगी फिसल रही थी मुठ्ठी से रेत की तरह प्रश्न अभी भी वहीं हैं आखिर कौन हूँ मैं........ प्रेम जिसका प्रयोग सब बातों में करते हैं आख़िर वह प्रेम क्या है....... जिंदगी बढ़ रही थी सरसराती रेलगाड़ी सी और ताक रहा था मैं एक छोटे स्टेशन सा काश कभी यहाँ भी रुक जाती यह होगा, लेकिन शायद उस दिन रेलगाड़ी रुकने के लिए बाध्य होगी किसी को बाध्य कर के रोकने से क्या फायदा जब वह स्वयं खुशी से ना रुके निराशा ही हाथ आने को हैं क्योंकि सवाल जस का तस हैं आख़िर, कौन हूँ मैं...... और प्रेम क्या है ...... आज खामोश पड़ी हैं अंचलों तक फैली धरती ठीक प्रसाद की कलम की तरह और वातावरण भी नीरवता में ले रहा है अंगड़ाई मुंशी जी के सांस की तरह अगर जिंदा होती आज ये आत्मायें तो पूछता आखिर, कौन हूँ मैं....... प्रेम क्या है ...... क्या प्रेम में मैं नहीं........ क्या मैं प्रेम का नहीं......