और शांत हैं गंगा का जल भी
हिलोरें उठ रही थी, केवल किनारों पर
वहीं बैठा ढूंढ रहा था
खुद में खुद को
आखिर कौन हूँ मैं ......
जबाब के उधेड़बुन में
जिंदगी फिसल रही थी
मुठ्ठी से रेत की तरह
प्रश्न अभी भी वहीं हैं
आखिर कौन हूँ मैं........
प्रेम
जिसका प्रयोग सब बातों में करते हैं
आख़िर वह प्रेम क्या है.......
जिंदगी बढ़ रही थी
सरसराती रेलगाड़ी सी
और ताक रहा था मैं
एक छोटे स्टेशन सा
काश कभी यहाँ भी रुक जाती
यह होगा, लेकिन शायद उस दिन रेलगाड़ी
रुकने के लिए बाध्य होगी
किसी को बाध्य कर के रोकने से क्या फायदा
जब वह स्वयं खुशी से ना रुके
निराशा ही हाथ आने को हैं
क्योंकि सवाल जस का तस हैं
आख़िर, कौन हूँ मैं......
और प्रेम क्या है ......
आज खामोश पड़ी हैं अंचलों तक फैली धरती
ठीक प्रसाद की कलम की तरह
और वातावरण भी नीरवता में ले रहा है अंगड़ाई
मुंशी जी के सांस की तरह
अगर जिंदा होती आज ये आत्मायें
तो पूछता
आखिर, कौन हूँ मैं.......
प्रेम क्या है ......
क्या प्रेम में मैं नहीं........
क्या मैं प्रेम का नहीं......
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