ईदगाह एक ऐसा नाम जो सुनते ही बचपन की उस याद को ताजा कर देती है जो हम ईद के मेले से 25 पैसे ही बाँसुरी और 10 आने की जलेबी लेकर शान से अकड़ते आते थे कि आज के बादशाह हम ।
लेकिन जब थोड़े बड़े हुए तो सबसे पहली बार कक्षा 2 में ईदगाह कहानी पढ़ने को मिली । तब हमें कहानी से मतलब होती थी, लेखक कौन हमें इसकी बिल्कुल भी इल्म नहीं होती या अगर हम यूँ कहें तो हमें उस समय इससे कोई लेना देना नहीं होता था, हमें तो बस कहानियाँ अच्छी लगती थी । जब थोड़े बड़े हुए तो पता चला यह कहानी तो कलम के जादूगर और हिंदी जगत (हिंदुस्तानी तहज़ीब) के उस सितारे की है जिसने हमें होरी के गोदान से लेकर घीसू और माधव के कफ़न से इस दुनिया को परिचय कराया । प्रेमचंद उस नगीने का नाम हैं जिसकी सेवासदन आज भी हमें आईना दिखाती हैं कि देखो तुम किस समाज में रह रहे हो, और किस तरह तुम्हारे ही कारण ये सेवासदन हैं ।
चलिए ईदगाह कहानी पर आते हैं, यह एक ऐसी कहानी है कि एक एक शब्द से ऐसा लगता हैं कि किरदार बस किताब से बाहर निकलने ही वाला है । कहानी में समाज के चित्रण के साथ साथ उस समय के हालात को भी बखूबी शब्दों में पिरो कर इसे एक जिंदा कहानी बना दिया । यहाँ जब उस कहानी से जुड़ी बातें लिख रहा हूँ तो एक मेरे ही जीवन का वाक्या याद आता है कि जब मैं कक्षा 8 में था, उस समय मुझे ईदगाह कहानी का सारांश लिखने को मिला स्कूल में, वो भी मेरी हिंदी की शिक्षिका ने मुझे सजा के तौर पर यह काम दी थी । मैं घर आया और कम से कम पाँच बार इसे पढ़ा ताकि मैं सारांश लिख सकूँ परन्तु जब लिखने बैठता तो लगता ये भी बात तो महत्वपूर्ण है इसे कैसे छोड़ सकता । इसी तरह लिखते-लिखते मैं पूरी कहानी ही लिख लिया और अगले दिन जब मैं अपना सजा के तौर पर मिल गृहकार्य दिखाने गया तो शिक्षिका ने मुझसे पूछा कि "पूरी कहानी ही क्यों लिख कर लाये हो मैं तो तुम्हें केवल सारांश लिखकर लाने बोली थी ।" मैं उनको बहुत ही विनम्रतापूर्वक बोला , महोदया, मुझे इसमें सारे वाक्य महत्वपूर्ण लगे और मैं उन्हें लिख डाला । मेरे इस उत्तर से प्रसन्न होकर उन्होंने मुझे अगले दिन एक कलम और डायरी देकर पुरस्कृत की थी ।
ईदगाह कहानी के सार की बात अगर संक्षेप में करें तो हम पाएंगे कि कहानी में समाज के हर पहलू को दिखाया गया हैं, बच्चों की अज्ञानता पूर्वक बातों से लेकर, समाज में व्याप्त कुरीतियों, और भ्रष्टाचार का भी उल्लेख मिलता हैं, वहीं दूसरे तरफ इसी कहानी के पात्र अमीना की गरीबी को दिखाते हैं और उसके पौत्र हामिद के माध्यम से समाज का वह मानवीय संवेदनाओं को भी प्रदर्शित करते हैं और यह बताना चाहते है कि मानवीय संवेदना केवल बड़ो द्वारा ही नहीं प्रेषित की जा सकती । जिस प्रकार से हामिद ने उस छोटी सी उम्र में अपने इन्द्रियों को बस में करके, अपनी आकांक्षाओं को खुद में समेट कर एक प्रौढ़ता का परिचय देता है, उस माध्यम से मुंशी प्रेमचंद जी यह बताना चाहते हैं कि अगर हमें अपने परिवार के प्रति, अपने समाज के प्रति, अपने देश के प्रति एक आदर्शवाद स्थापित करना है, मानवीय संवेदनाओं को जीवित रखना है तो स्वयं पर नियंत्रण होना अति आवश्यक हैं ।
अब अन्ततः बात करते हैं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय परिसर स्थित महिला महाविद्यालय में प्रेमचंद जयंती महोत्सव पर हुई प्रस्तुति की जिसमें ईदगाह कहानी का रेडियो रूपांतरण प्रस्तुत किया गया । कई मायने में यह पहल अनूठी रही, सबसे पहले तो यह देखा कि किस तरह कुशलतापूर्वक संचालन किया गया,बल्कि यह भी देखने को बहुत कम मिलता हैं जहाँ एक ही मंच पर साहित्य, विज्ञान और कला के मर्मज्ञ विद्वान उपस्थित हो । सबके बातों के निष्कर्ष की बात करूँ तो मैंने यह पाया कि सबने मुंशी जी के जीवन से क्या-क्या सीखा, मुंशी जी को किस प्रकार से समझा , उनकी कहानियों को गुना, उसपर मनन किया, उसको अपने जीवन में उतारने की कोशिश की यहीं सब बताया गया । उसके बाद बारी आई ईदगाह कहानी के रेडियो रूपांतरण की, जिसकी हम बात करें तो शुरुआत बहुत ही रोमांचित करने वाले वाक्यों से किया गया । कहा गया हैं कि शब्द के मतलब कहने के अंदाज से बयां होते हैं । और कहने का जो अंदाज दिखा वहाँ, यकीन मानिए अगर आज मुंशी जी जिंदा होते तो खुद उठकर उद्घोषक को गले से लगाकर ढ़ेर सारा आशीर्वाद सौंपते । हर एक वाक्य की सजीवता इससे आत्मिक रूप से जुड़ने का आह्वान कर रही हो, मानो ऐसा लग रहा है कि हर शब्द कान से होते हुए शरीर के हर अंग में उस ऊर्जा का संचार कर रही हो जो शायद एकपल के लिए मुंशी जी की सारी ऊर्जा एकपल को मेरे अंदर समाहित होने को बेताब हो । फिर बारी बारी से बाकी के किरदार भी जल्द ही कहानी के उस मर्म में तुरन्त खुद को जोड़ कर हमें उस संवेदना तक पहुँचाने में मददगार साबित हुए जो कि कभी मुंशी जी ने इसे लिखते वक़्त महसूस किए होंगे । अगर सौ बात की एक बात कहनी हो तो यह कह सकते हैं कि आज उस कक्ष में बैठे सभी लोग एकपल के लिए घड़ी 100 साल पीछे चली गई हो और सब के सब उस किरदार को जी रहे हो ।
चूंकि मैं उस समय उस पूरे कहानी के रेडियो रूपांतरण को अपने कैमरे में कैद रहा था तो इस कारण मेरा पूरा ध्यान हर किरदार पर बराबर था जिसमें कुछ गलतियाँ भी थी, लेकिन हम कम समय और कहानी के किरदार को देखें तो सब क्षम्य है, लेकिन हर किरदार को मंच पर उस सजीवता को बरकरार रखनी चाहिए क्योंकि उस समय आपकी गतिविधियों पर सबकी नजर होती हैं, और एक छोटी सी गलती आपके पूरे मेहनत पर पानी फेर देती है । इसलिए कोशिश यहीं होनी चाहिए मंच पर मौजूद हर कलाकार को कि वह दर्शक क्या कर रहे उसपर ध्यान न देते हुए अपने कला पर ध्यान दे ।
अंत में बस इतना कहना चाहूँगा कि ईदगाह केवल एक कहानी नहीं, एक संस्कार हैं, हमारी भारतीय संस्कृति का एक अहम हिस्सा हैं । आज समाज में जो विद्वेष की भावना पनप रही है, इसको आपसी सद्भाव से ही दूर किया जा सकता हैं । ईद केवल एक पर्व नहीं, बल्कि एक महोत्सव है कि हम आपसी रंजिश को भूल कर एक दूसरे को गले लगाए चाहे हम किसी भी धर्म, किसी भी मज़हब, किसी भी सम्प्रदाय, किसी भी जाति विशेष से ताल्लुक रखते हो । असल मायने में यहीं मुंशी प्रेमचंद को सच्ची श्रद्धांजलि होगी ।
कलम के उस महान सिपाही को, उपन्यास के उस सम्राट को शत शत नमन करता हूँ । जिसने हमारे अंदर भारतीय होने का बोध कराया, हमें हमारी संस्कृति से परिचय कराया ।
धन्यवाद
उज्ज्वल कुमार सिंह
हिंदी विभाग
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
लेकिन जब थोड़े बड़े हुए तो सबसे पहली बार कक्षा 2 में ईदगाह कहानी पढ़ने को मिली । तब हमें कहानी से मतलब होती थी, लेखक कौन हमें इसकी बिल्कुल भी इल्म नहीं होती या अगर हम यूँ कहें तो हमें उस समय इससे कोई लेना देना नहीं होता था, हमें तो बस कहानियाँ अच्छी लगती थी । जब थोड़े बड़े हुए तो पता चला यह कहानी तो कलम के जादूगर और हिंदी जगत (हिंदुस्तानी तहज़ीब) के उस सितारे की है जिसने हमें होरी के गोदान से लेकर घीसू और माधव के कफ़न से इस दुनिया को परिचय कराया । प्रेमचंद उस नगीने का नाम हैं जिसकी सेवासदन आज भी हमें आईना दिखाती हैं कि देखो तुम किस समाज में रह रहे हो, और किस तरह तुम्हारे ही कारण ये सेवासदन हैं ।
चलिए ईदगाह कहानी पर आते हैं, यह एक ऐसी कहानी है कि एक एक शब्द से ऐसा लगता हैं कि किरदार बस किताब से बाहर निकलने ही वाला है । कहानी में समाज के चित्रण के साथ साथ उस समय के हालात को भी बखूबी शब्दों में पिरो कर इसे एक जिंदा कहानी बना दिया । यहाँ जब उस कहानी से जुड़ी बातें लिख रहा हूँ तो एक मेरे ही जीवन का वाक्या याद आता है कि जब मैं कक्षा 8 में था, उस समय मुझे ईदगाह कहानी का सारांश लिखने को मिला स्कूल में, वो भी मेरी हिंदी की शिक्षिका ने मुझे सजा के तौर पर यह काम दी थी । मैं घर आया और कम से कम पाँच बार इसे पढ़ा ताकि मैं सारांश लिख सकूँ परन्तु जब लिखने बैठता तो लगता ये भी बात तो महत्वपूर्ण है इसे कैसे छोड़ सकता । इसी तरह लिखते-लिखते मैं पूरी कहानी ही लिख लिया और अगले दिन जब मैं अपना सजा के तौर पर मिल गृहकार्य दिखाने गया तो शिक्षिका ने मुझसे पूछा कि "पूरी कहानी ही क्यों लिख कर लाये हो मैं तो तुम्हें केवल सारांश लिखकर लाने बोली थी ।" मैं उनको बहुत ही विनम्रतापूर्वक बोला , महोदया, मुझे इसमें सारे वाक्य महत्वपूर्ण लगे और मैं उन्हें लिख डाला । मेरे इस उत्तर से प्रसन्न होकर उन्होंने मुझे अगले दिन एक कलम और डायरी देकर पुरस्कृत की थी ।
ईदगाह कहानी के सार की बात अगर संक्षेप में करें तो हम पाएंगे कि कहानी में समाज के हर पहलू को दिखाया गया हैं, बच्चों की अज्ञानता पूर्वक बातों से लेकर, समाज में व्याप्त कुरीतियों, और भ्रष्टाचार का भी उल्लेख मिलता हैं, वहीं दूसरे तरफ इसी कहानी के पात्र अमीना की गरीबी को दिखाते हैं और उसके पौत्र हामिद के माध्यम से समाज का वह मानवीय संवेदनाओं को भी प्रदर्शित करते हैं और यह बताना चाहते है कि मानवीय संवेदना केवल बड़ो द्वारा ही नहीं प्रेषित की जा सकती । जिस प्रकार से हामिद ने उस छोटी सी उम्र में अपने इन्द्रियों को बस में करके, अपनी आकांक्षाओं को खुद में समेट कर एक प्रौढ़ता का परिचय देता है, उस माध्यम से मुंशी प्रेमचंद जी यह बताना चाहते हैं कि अगर हमें अपने परिवार के प्रति, अपने समाज के प्रति, अपने देश के प्रति एक आदर्शवाद स्थापित करना है, मानवीय संवेदनाओं को जीवित रखना है तो स्वयं पर नियंत्रण होना अति आवश्यक हैं ।
अब अन्ततः बात करते हैं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय परिसर स्थित महिला महाविद्यालय में प्रेमचंद जयंती महोत्सव पर हुई प्रस्तुति की जिसमें ईदगाह कहानी का रेडियो रूपांतरण प्रस्तुत किया गया । कई मायने में यह पहल अनूठी रही, सबसे पहले तो यह देखा कि किस तरह कुशलतापूर्वक संचालन किया गया,बल्कि यह भी देखने को बहुत कम मिलता हैं जहाँ एक ही मंच पर साहित्य, विज्ञान और कला के मर्मज्ञ विद्वान उपस्थित हो । सबके बातों के निष्कर्ष की बात करूँ तो मैंने यह पाया कि सबने मुंशी जी के जीवन से क्या-क्या सीखा, मुंशी जी को किस प्रकार से समझा , उनकी कहानियों को गुना, उसपर मनन किया, उसको अपने जीवन में उतारने की कोशिश की यहीं सब बताया गया । उसके बाद बारी आई ईदगाह कहानी के रेडियो रूपांतरण की, जिसकी हम बात करें तो शुरुआत बहुत ही रोमांचित करने वाले वाक्यों से किया गया । कहा गया हैं कि शब्द के मतलब कहने के अंदाज से बयां होते हैं । और कहने का जो अंदाज दिखा वहाँ, यकीन मानिए अगर आज मुंशी जी जिंदा होते तो खुद उठकर उद्घोषक को गले से लगाकर ढ़ेर सारा आशीर्वाद सौंपते । हर एक वाक्य की सजीवता इससे आत्मिक रूप से जुड़ने का आह्वान कर रही हो, मानो ऐसा लग रहा है कि हर शब्द कान से होते हुए शरीर के हर अंग में उस ऊर्जा का संचार कर रही हो जो शायद एकपल के लिए मुंशी जी की सारी ऊर्जा एकपल को मेरे अंदर समाहित होने को बेताब हो । फिर बारी बारी से बाकी के किरदार भी जल्द ही कहानी के उस मर्म में तुरन्त खुद को जोड़ कर हमें उस संवेदना तक पहुँचाने में मददगार साबित हुए जो कि कभी मुंशी जी ने इसे लिखते वक़्त महसूस किए होंगे । अगर सौ बात की एक बात कहनी हो तो यह कह सकते हैं कि आज उस कक्ष में बैठे सभी लोग एकपल के लिए घड़ी 100 साल पीछे चली गई हो और सब के सब उस किरदार को जी रहे हो ।
चूंकि मैं उस समय उस पूरे कहानी के रेडियो रूपांतरण को अपने कैमरे में कैद रहा था तो इस कारण मेरा पूरा ध्यान हर किरदार पर बराबर था जिसमें कुछ गलतियाँ भी थी, लेकिन हम कम समय और कहानी के किरदार को देखें तो सब क्षम्य है, लेकिन हर किरदार को मंच पर उस सजीवता को बरकरार रखनी चाहिए क्योंकि उस समय आपकी गतिविधियों पर सबकी नजर होती हैं, और एक छोटी सी गलती आपके पूरे मेहनत पर पानी फेर देती है । इसलिए कोशिश यहीं होनी चाहिए मंच पर मौजूद हर कलाकार को कि वह दर्शक क्या कर रहे उसपर ध्यान न देते हुए अपने कला पर ध्यान दे ।
अंत में बस इतना कहना चाहूँगा कि ईदगाह केवल एक कहानी नहीं, एक संस्कार हैं, हमारी भारतीय संस्कृति का एक अहम हिस्सा हैं । आज समाज में जो विद्वेष की भावना पनप रही है, इसको आपसी सद्भाव से ही दूर किया जा सकता हैं । ईद केवल एक पर्व नहीं, बल्कि एक महोत्सव है कि हम आपसी रंजिश को भूल कर एक दूसरे को गले लगाए चाहे हम किसी भी धर्म, किसी भी मज़हब, किसी भी सम्प्रदाय, किसी भी जाति विशेष से ताल्लुक रखते हो । असल मायने में यहीं मुंशी प्रेमचंद को सच्ची श्रद्धांजलि होगी ।
कलम के उस महान सिपाही को, उपन्यास के उस सम्राट को शत शत नमन करता हूँ । जिसने हमारे अंदर भारतीय होने का बोध कराया, हमें हमारी संस्कृति से परिचय कराया ।
धन्यवाद
उज्ज्वल कुमार सिंह
हिंदी विभाग
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
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