Skip to main content

अंधेरे रहस्य (भाग 4 )

******************************************
                              भाग 4
------------------------------------------------------------------



घर आने के बाद से जीवन में एक इतने बड़े  झूठ को सबसे छुपाने की चुनौती के साथ-साथ इस झूठ को भी छिपाने की चुनौती बन गई । इतना उदास और खुद को इतना शर्मिंदा महसूस करने लगा कि जो हमेशा अपनी हँसी मजाक के लिए गाँव भर में मशहूर था, अब वह देखने को न मिलती । गाँववाले भी कई दफा घर पर यह पूछ चुके कि आजकल रवि बेटा नहीं दिख रहा । तबियत वगैरह तो ठीक है न उसकी ? दादाजी की आवाज आती है कमरे से , बेटा रवि, बाहर आओ देखो तुमसे मिलने कौन आया है ।
        इतना सुनते ही रवि के चेहरे पर परेशानी के बादल घिर आये, पता न कौन आ गया ? इतने उदास मन से किससे मिलने जाउँ, कैसे अपना दर्द छिपाऊँगा ? कोई अज़नबी होगा तो कैसे उसके सामने मुस्कुरा पाउँगा । नहीं, मैं यह सब नहीं कर सकता । मैं बाहर नहीं जाऊँगा ।
      बाहर दादाजी और पड़ोस के ही एक बुजुर्ग, रिश्ते में वो भी दादाजी ही लगेंगे, बातें कर रहे है । विप्लव (पड़ोस वाले दादाजी ) कहते है " जान जाइ ए मास्टर साहब,( दादाजी भी एक भूतपूर्व शिक्षक है और पड़ोस के दादाजी भी एक भूतपूर्व शिक्षक ) कि रवि जवन बा, बहुत होनहार लड़िका बा । पढ़े में ओतने तेज जेतना बदमाशी में, रोज हमरे पास आवत रल, आई बइठि हमरा पास, आ कहीं कि 'बाबाजी, आज पढ़त रनी ह त ई दिक्कत आइल ह, अब लिख के धइले बानी, कल जा के स्कूल में पुछेम' । जान जाइ के एतना सुन के मन गदगद हो जाला, कव बार त हम ओकरा के ओकर सवाल बता देनी त अइसे खुश होला की मत पूछी ।"
दादाजी :- जी, सब लोग इहे बात करें ला, हमार मन ह एकरा के वक़ालत पढ़ाई ।
विप्लव :- ना हो, ई गलती कबो मत करिह, ओकर जवन पढ़े के मन होइ तवने पढईह ।
दादाजी :- जी, उ त बड़ले बा । आख़िर पढ़े के त ओकरे बा ।
विप्लव :- हाँ । अभी तक बचवा आएल ना ।
दादाजी :- रवि , जल्दी आओ बाबू
      रवि एकदम भारी मन से, अब निकलता है कि बिना निकले अब जान बचने वाली नहीं हैं । रवि :- "हाँ दादाजी आया, बस 5 मिनट में ।" फिर अपने कमरे से निकल कर घर मे अंदर जाता है औऱ अपने आंसू को धोकर बाहर निकलता हैं । दोनों बुजुर्गों से आशीर्वाद लेकर वहीं सिर झुकाए खड़ा हो गया ।
विप्लव :- क्या हुआ बेटा, आजकल दिखाई नहीं दे रहे । 4-5 दिन से नहीं आये तुम तो दादी कहने लगी कि कहीं उसका तबियत तो खराब नहीं है न, जाइये देख आइये ।
      बच्चों के न दिखने पर हाल चाल पूछने आने की चलन अब केवल गांवों में बचीं हैं, अपितु यह कहे कि यह भी धीरे धीरे खत्म हो रहा तो कहीं से भी अनुचित नहीं होगा ।हमारे गाँवों को और गाँव की संस्कृति को शहर धीरे-धीरे निगल रहा है और बहुत जल्दी ही भारत से ग्राम्य जीवन का अंत होता भी दिख रहा है । जहाँ एक तरफ गाँवो में मानवीय संवेदना आज भी जिंदा है, तो शहर एक निर्जीव और शिथिल जीवन बन चुका है, जहाँ किसी को किसी से कोई खास मतलब नहीं होता । सब अपने मतलब के लिए कुछ भी करने को तैयार होते है । शहर उस जगह का नाम है जहाँ बुजुर्ग को घर मे पनाह नहीं मिलती और कुत्ते वातानुकूलित कमरे में रहते है । जिस माता पिता ने बच्चों को पाल पोस  कर बड़ा किया, उसे शिक्षा दीक्षा दी, वहीं इनके लिए अब अछूत हो जा रहा है । कुत्ते के साथ घुमने के लिए पर्याप्त समय है परन्तु बुजुर्गों के हाल चाल पूछने तक का समय नहीं शहर के पास । वहीं गाँवों में आज भी बुजुर्गों का सम्मान होता है और कोई भी काम करने से पहले उनसे मशवरा जरूर किया जाता कारण की उन्होंने इस जीवन को करीब से बहुत पहले देख रखा है ।

रवि :- नहीं, परीक्षा करीब है, इसलिए अब बाहर निकलना कम कर दिया हूँ ।
विप्लव :- लेकिन इतने उदास क्यों हो ?
रवि :- "नहीं दादाजी । ऐसी कोई बात नहीं है ।" एक ज़बरदस्ती मुस्कान अपने चेहरे पर बिखेरते हुए उत्तर दिया ।
विप्लव :- देख बेटा, कोई भी दिक्कत हो तो हमें बताओ, हमें मालूम है कि तुम्हें कुछ परेशानी है ।
रवि :- नहीं दादाजी, सच में कोई परेशानी नहीं हैं ।
विप्लव :- ठीक है, खूब पढ़ाई करो । हमलोग का नाम रौशन करो ।
      यह सुनते ही रवि की आँखे छलछला उठी, लेकिन आँखों को संभालते हुए वह जल्दी से अंदर जाता हैं और दरवाजा बंद कर के अपने आप को कोसता हैं कि आज एक झूठ को छिपाने के लिए कितने झूठ बोलने पड़ रहे । लेकिन सच कहें तो किस मुँह से, आखिर इतना हिम्मत लाये कहाँ से ? इन सब से इतना टूट चुका हूँ कि किसी को बताऊँगा भी तो लोग मुझे ही डाँटेंगे ।।
    सबकी डाँट सुन लूँगा, लेकिन आज सबकुछ बता दूँगा, नहीं, मैं नहीं बता सकता । नहीं तो मुझे कोचिंग जाने से मना कर देंगे और वह इस बात का हाय तौबा मचा देगी । किस दुविधा में फँस गया हूँ ? हाय मैं मर क्यों नहीं जाता ?
      चलो कल शाम को सारी बाते राजू चाचा को बताऊँगा, वह हमलोग के उम्र के हैं, अपनी सबकुछ बताते हैं । मैं उनके साथ सहज हूँ, उनसे बता सकता हूँ ।
     अगले दिन शाम के समय मैदान में बच्चे खेल रहे है, लेकिन जिंदगी जो खेल खेल रही उससे एक जिंदगी इस तरह हर चुकी है कि यह सब खेल बकवास लग रहा हैं । राजू चाचा को बुलाकर मैदान के कोने में चलने का इशारा करते हुए वह खुद मैदान के दूसरे छोर पर चला जाता हैं ।
 राजू :- हाँ, रवि ! क्या हुआ है तुम्हें ? तबियत ठीक है न तेरी ।
रवि :- हाँ चाचा ।
राजू :- तो इतना परेशान क्यों हो ?
रवि :- "चाचा जी", इतना कहते ही वह फुट फुट के रो पड़ता हैं  और अपना सर चाचा जी के कंधे पर रख देता हैं ।
राजू :- क्या हुआ है बाबू ? किसी ने कुछ बोला है क्या ?
रवि :- "कैसे बताऊँ"
राजू :- जो भी खुल कर बताओ, प्रॉमिस किसी को नहीं बताऊँगा ।
रवि उनको सारा कुछ बताता है ।

Comments

Popular posts from this blog

यहूदी की लड़की का समीक्षा

पुस्तक का नाम :- यहूदी की लड़की लेखक              :- आग़ा हश्र कश्मीरी लेखन की विधा  :- नाटक 'यहूदी की लड़की' नाटक  का नाम पहली बार मैं स्नातक तृतीय वर्ष के पाठ्यक्रम में पढ़ा तो बहुत उत्सुकता हुई की पढ़ा जाय यह नाटक कैसा है, चूंकि आग़ा हश्र कश्मीरी का नाम पहले से सुना हुआ था, तो मैं फौरन इस किताब को खरीद और एक ही दिन में इसे पूरा पढ़ डाला, और मैं अपने अध्ययन के आधार पर आपके समक्ष इसकी एक रूपरेखा प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ, आपको कैसा लगा यह आप अवश्य बताइयेगा, जिससे मेरा उत्साहवर्धन हो और अगली बार और अच्छा कर सकूँ ।          आइये तो शुरू करते है इस नाटक के पहले दृश्य के पहले अंक से, जैसे ही पर्दा उठता है मंच पर डैसिया और सहेलियों के आगमन होता है, जिसमें डैसिया अपने होने वाले शौहर के उपेक्षा से विरह की उस व्यथा को अनुभव कर रही है, जो प्रेमी अपने प्रेमिका से बिछड़ने के बाद करता है, एक चातक चातकी से बिछड़ने पर करता है, और शायद पपीहा भी अपने युगल के विरह में ही पीहू-पीहू करता है । यहीं पर डैसिया अपने मंगेतर को आता देख...

टमाटर और बैंगन का इश्क़

यह कहानी जो सुनने में थोड़ी अटपटी तो लगेगी लेकिन अगर हम सिर्फ इसे एक कहानी के तौर पर पढ़े तो मज़ा आएगा ऐसा आशा करता हूँ । यह कहानी जीवन के दो सबसे खास दोस्त प्रगति मधुप और अंजली मिश्रा को समर्पित । यह कहानी है टमाटर और बैंगन की । जी हाँ, सब्जी टमाटर और बैंगन की । आज टमाटर दुःखी मन से मगर तेज कदमों से आगे बढ़ रही है, दुःखी इसलिए क्योंकि आज उसे अपना घर छोड़ कर पराये घर को जाना पड़ रहा है, जो कभी चाहा न था । अरे भैया बात हो रही है, विद्यालय छोड़ने की, आज पुराने विद्यालय को छोड़कर एक नए नवेले विद्यालय में जाना था जहाँ की संस्कृति कुछ मिलती तो बहुत जुदा-जुदा है । ठीक उसी प्रकार जैसे किसी लड़की को शादी के बाद अपना घर छोड़ पति के घर जाना पड़ता है और वहाँ उसके सभी पहचान को बदल दिया जाता है, और अब वह ससुराल से जानी जाती है, इस कारण टमाटर भी दुःखी है, लेकिन खुश इस वजह से कि आज उसके जीवन का बहुत अहम दिन है । टमाटर अपने दोस्त भिंडी और टिंडे के साथ थी परन्तु उसे क्या पता कि उसका पीछा इसी गली के दो लफंगे, यानी बैंगन और मूली कर रहे है, और सामान्य इंसानी छात्र की तरह लाल वाली तेरी, हरी वाली मेरी तय हो जाता है...

ईदगाह

ईदगाह एक ऐसा नाम जो सुनते ही बचपन की उस याद को ताजा कर देती है जो हम ईद के मेले से 25 पैसे ही बाँसुरी और 10 आने की जलेबी लेकर शान से अकड़ते आते थे कि आज के बादशाह हम ।         लेकिन जब थोड़े बड़े हुए तो सबसे पहली बार कक्षा 2 में ईदगाह कहानी पढ़ने को मिली । तब हमें कहानी से मतलब होती थी, लेखक कौन हमें इसकी बिल्कुल भी इल्म नहीं होती या अगर हम यूँ कहें तो हमें उस समय इससे कोई लेना देना नहीं होता था, हमें तो बस कहानियाँ अच्छी लगती थी । जब थोड़े बड़े हुए तो पता चला यह कहानी तो कलम के जादूगर और हिंदी जगत (हिंदुस्तानी तहज़ीब) के उस सितारे की है जिसने हमें होरी के गोदान से लेकर घीसू और माधव के कफ़न से इस दुनिया को परिचय कराया । प्रेमचंद उस नगीने का नाम हैं जिसकी सेवासदन आज भी हमें आईना दिखाती हैं कि देखो तुम किस समाज में रह रहे हो, और किस तरह तुम्हारे ही कारण ये सेवासदन हैं ।          चलिए ईदगाह कहानी पर आते हैं, यह एक ऐसी कहानी है कि एक एक शब्द से ऐसा लगता हैं कि किरदार बस किताब से बाहर निकलने ही वाला है । कहानी में समाज के चित्रण के साथ साथ उस समय के ...