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गंगा तट और मैं

कल की शाम
जब बैठा था अकेला गंगा के तट पर
हिलोरें उठ रही थी
दिल में
आज अगर शांत थी तो
गंगा की न थकने वाली धारा
दिल बेचैन था
आख़िर आज सदियों पुरानी याद जैसी
कुछ याद आ रही थी
मगर गंगा की अविरल धारा में बह जाती
और मन सोचते रह जाता
एक कहानी थी
जो आगे बढ़ी थी
मगर उसी रिश्ते की तरह
जो दोस्ती से आगे बढ़कर आगे तो निकलती है
लेकिन साथ ही, तोड़ देती है दम जल्द ही
शायद कोई और मिल जाता है

आज की शाम, जिंदगी में अंधेरे की शाम सी थी
बहुत कुछ भूलकर, बहुत कुछ याद कर बह उठी
तबसे देख-देख कर थकी आँखे
बून्द पहले महीनों के प्यासी गालों को
सींचकर बढ़े आगे
फिर जा मिले गंगा की उस धारा में
जो आज शांत थी
यह बताने के लिए कि
तेरी जिंदगी भी अब शांत हो सकती है
एक अंधकार को लिपट कर

तभी सहसा एक पंक्षी युगल गुज़रे
बहुत खुश थे
शायद प्रकृति भी मुझे 
ईर्ष्या आग में झुलसाना चाहती थी
निरंतर बहते आंखों के बीच जब मैं
रुमाल निकाला, आँखे पोछि
अब सबकुछ साफ था
आँखों में पड़े धूल निकल चुके थे
चेहरा था यार की
परन्तु आख़िरी यार की
इसे खोना न चाहता 
बस इसीलिए मैं हूँ
और वह वह है
ना मैं हम हो सकता
ना उसे हम बनाना है
बस जिंदगी में केवल एक दोस्त के संग
अपना जीवन निभाना हैं

क्योंकि कुछ ख्वाहिश अधूरी रहने के लिए बनती है
और कुछ मोड़ लेती है रास्ते
उस मंजिल की तरफ
जिसका कोई ठिकाना नहीं


                                      उज्ज्वल कुमार सिंह
                                            हिंदी विभाग
                                    काशी हिंदू विश्वविद्यालय

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