मोहब्बत मुक़म्मल हुई उसी की
जिसमें दूरियां दरम्यान थी
मैंने तो अक्सर नज़दीकियों में
इश्क़ को टूटते, बिखरते देखा है
जिनके साथ खाई थी कसमें
साथ उम्र भर निभानें की
मैं हर वक़्त उस इंसान को
गैरों तलब बदलते देखा है
पिलाकर सहज रस जीवन का
उसने फेंक दिया कचरे को
मैं उस कचरे को भी उम्र भर
पीने को तड़पते देखा है
जब खुद के मद में मदहोश
हसीना कोई तोड़ती हैं पत्थर दिल
फिर उस पत्थर को भी जीवन तलक
मोम सा पिघलते देखा है
छोड़ देते हैं साथ जिसका
ज़माने के सब लोग
ज़माने से अलग उसे
हर रोज निखरते देखा है
पिघल कर बह रही है
जो अब मोम की दरिया
पत्थर थी, वह उसे मैंने
किसी के ठोकर से बिखरते देखा है
जब खुद के मैं से हम हुए थे
हम होकर भी केवल हम बचें
छीन लिया ज़माने ने मुझसे मुझको
मैंने खुद को हर वक़्त छिटकते देखा है
किसी की ठोकर से हम
यूँ पहुँच गए बर्बादी के किनारे
उसने कहा था, बर्बाद हो जाओगे इश्क़ में
फिर बाद में उसे ही बात से मुकरते देखा है
इश्क़ की इतनी इबादत
किसी गैर के लिए कौन करता
बन गया गैर सुनते हुए प्यार का गीत
बिखेर कर मुझको उसे, लश्कर में मुस्कुराते देखा है
जिसमें दूरियां दरम्यान थी
मैंने तो अक्सर नज़दीकियों में
इश्क़ को टूटते, बिखरते देखा है
जिनके साथ खाई थी कसमें
साथ उम्र भर निभानें की
मैं हर वक़्त उस इंसान को
गैरों तलब बदलते देखा है
पिलाकर सहज रस जीवन का
उसने फेंक दिया कचरे को
मैं उस कचरे को भी उम्र भर
पीने को तड़पते देखा है
जब खुद के मद में मदहोश
हसीना कोई तोड़ती हैं पत्थर दिल
फिर उस पत्थर को भी जीवन तलक
मोम सा पिघलते देखा है
छोड़ देते हैं साथ जिसका
ज़माने के सब लोग
ज़माने से अलग उसे
हर रोज निखरते देखा है
पिघल कर बह रही है
जो अब मोम की दरिया
पत्थर थी, वह उसे मैंने
किसी के ठोकर से बिखरते देखा है
जब खुद के मैं से हम हुए थे
हम होकर भी केवल हम बचें
छीन लिया ज़माने ने मुझसे मुझको
मैंने खुद को हर वक़्त छिटकते देखा है
किसी की ठोकर से हम
यूँ पहुँच गए बर्बादी के किनारे
उसने कहा था, बर्बाद हो जाओगे इश्क़ में
फिर बाद में उसे ही बात से मुकरते देखा है
इश्क़ की इतनी इबादत
किसी गैर के लिए कौन करता
बन गया गैर सुनते हुए प्यार का गीत
बिखेर कर मुझको उसे, लश्कर में मुस्कुराते देखा है
उज्ज्वल कुमार सिंह
हिन्दी विभाग
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
अच्छा लिखे हैं
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