नफ़रतों के इस दौर में, तुम इश्क़ की बात करते हो !
ओ मोहब्बत के पुजारी, तुम भी कमाल करते हो !
तुम गला कर देह अपनी, उस बेवफ़ा को क्यों याद करते हो ?
तुम्हें छला गया हैं, अपनी बर्बादी को क्यों याद करते हो ?
ओ मोहब्ब्त के पुजारी, तुम भी क्या बात करते हो !
सुनें हो क्या कभी, किसी फ़टे ढ़ोल की आवाज़ ?
मिली हैं मंजिल क्या कभी उसे, जिसने करी नहीं आगाज़ ?
तुम भी कितने बेवकूफ़ नज़र आते हो,
पत्थर से रब से अपनी फरियाद करते हो !
ओ मोहब्बत के पुजारी, तुम भी क्या बात करते हो !
उलझ कर रह गई थी, तेरी कलम गोरी के बालों में,
तेरे दिन व रात कट जाती , नैन गुलाम थे उसके गालों के ।
कैसे फूँक दी तुमने वो तराना, कृष्ण के मुरली में ?
स्वयं की बर्बादी को तुम, आबाद कहते हो !
ओ मोहब्बत के पुजारी, तुम भी क्या बात करते हो !
तुम्हें पता नहीं, दुनिया कितना बदल गई है ?
प्यार के मतलब को, धन निगल गई है ।
जब इश्क़ करना तो, अब थोड़ा सम्भल के ,
क्यों अपने हाथ से कुल्हाड़ी, अपने पैर पर करते हो !
ओ मोहब्बत के पुजारी, तुम भी क्या बात करते हो !
जला दिए घर अपने इश्क़ के राह में तो क्या,
चाहते हो तेरी महबूबा भी जला डालें ?
नहीं वह न जलाएगी, खुद के मन को,
क्योंकि वह तुमसे नहीं, मौके से इश्क़ किया है ।
फिर क्यों अपने बर्बादी का मंजर, क्यों साथ लिए फिरते हो ?
ओ मोहब्बत के पुजारी, तुम भी क्या बात करते हो !
नर तन का चोला तुमने पाई हैं, केवल इश्क़ के लिए ?
नहीं, कुछ नाम वाम कर लो,
इश्क़ राह ही ऐसा है, जहाँ पहले बदनाम खुद को कर लो ।
दलदल-ए-इश्क में, तुम पाक साफ रहते हो !
ओ मोहब्बत के पुजारी, तुम भी क्या बात करते हो !
करते मिट जाओगे इश्क़ अब इस दुनिया में,
मर कर बंट गई है मोहब्बत, ज़नाज़े की बुनिया में ।
तुमने उठाकर मशाल पहले खुद को जला डाला,
अब इश्क़ की आग से, दुनिया जलाने की बात करते हो !
ओ मोहब्बत के पुजारी, तुम भी क्या बात करते हो !
ओ मोहब्बत के पुजारी, तुम भी कमाल करते हो !
तुम गला कर देह अपनी, उस बेवफ़ा को क्यों याद करते हो ?
तुम्हें छला गया हैं, अपनी बर्बादी को क्यों याद करते हो ?
ओ मोहब्ब्त के पुजारी, तुम भी क्या बात करते हो !
सुनें हो क्या कभी, किसी फ़टे ढ़ोल की आवाज़ ?
मिली हैं मंजिल क्या कभी उसे, जिसने करी नहीं आगाज़ ?
तुम भी कितने बेवकूफ़ नज़र आते हो,
पत्थर से रब से अपनी फरियाद करते हो !
ओ मोहब्बत के पुजारी, तुम भी क्या बात करते हो !
उलझ कर रह गई थी, तेरी कलम गोरी के बालों में,
तेरे दिन व रात कट जाती , नैन गुलाम थे उसके गालों के ।
कैसे फूँक दी तुमने वो तराना, कृष्ण के मुरली में ?
स्वयं की बर्बादी को तुम, आबाद कहते हो !
ओ मोहब्बत के पुजारी, तुम भी क्या बात करते हो !
तुम्हें पता नहीं, दुनिया कितना बदल गई है ?
प्यार के मतलब को, धन निगल गई है ।
जब इश्क़ करना तो, अब थोड़ा सम्भल के ,
क्यों अपने हाथ से कुल्हाड़ी, अपने पैर पर करते हो !
ओ मोहब्बत के पुजारी, तुम भी क्या बात करते हो !
जला दिए घर अपने इश्क़ के राह में तो क्या,
चाहते हो तेरी महबूबा भी जला डालें ?
नहीं वह न जलाएगी, खुद के मन को,
क्योंकि वह तुमसे नहीं, मौके से इश्क़ किया है ।
फिर क्यों अपने बर्बादी का मंजर, क्यों साथ लिए फिरते हो ?
ओ मोहब्बत के पुजारी, तुम भी क्या बात करते हो !
नर तन का चोला तुमने पाई हैं, केवल इश्क़ के लिए ?
नहीं, कुछ नाम वाम कर लो,
इश्क़ राह ही ऐसा है, जहाँ पहले बदनाम खुद को कर लो ।
दलदल-ए-इश्क में, तुम पाक साफ रहते हो !
ओ मोहब्बत के पुजारी, तुम भी क्या बात करते हो !
करते मिट जाओगे इश्क़ अब इस दुनिया में,
मर कर बंट गई है मोहब्बत, ज़नाज़े की बुनिया में ।
तुमने उठाकर मशाल पहले खुद को जला डाला,
अब इश्क़ की आग से, दुनिया जलाने की बात करते हो !
ओ मोहब्बत के पुजारी, तुम भी क्या बात करते हो !
Nice line 👍👍
ReplyDeleteशुक्रिया ज़नाब
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