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सुंदरता और उसके प्रतिमान


इस पोस्ट का मकसद किसी के मन(भावनाओं) को ठेस पहुँचाना नहीं हैं । यह पूर्ण रूप से किताबों के अध्ययन पर आधारित हैं, इसलिए यह कहकर कि मैं स्त्री के वेश भूषा के मामले में दकियानूसी ख़्याल रखता हूँ , मेरे ऊपर कोई आरोप न मढ़े ।
      "सुंदरता पर्दे में ज्यादा सुंदर लगती हैं"
                                                 :-  बिहारी
जब आप बिहारी के दोहों का अध्ययन करेंगे तो स्वभाविक हैं आपको यह देखने को मिलेगा बिहारी जगह-जगह नायिका के सौंदर्य वर्णन करते समय उन्होंने नायिका को पर्दे के भीतर रखा हैं । इसका हम यह कतई मतलब नहीं लगा सकते कि बिहारी उस समय के तत्कालीन समाज का ही निरूपण कर रहे थे, अगर ऐसा होता तो शायद उनकी भी कविता(दोहों) को उन सैकड़ों गुमनाम कवियों के कृतियों की तरह काल के गर्त में दबा दी गई होती । आज हम जिस प्रकार से बिहारी को देखते हैं, कुछ लोग उन्हें यह कहकर ख़ारिज करना चाहते हैं कि उनकी कविताओं में नग्नता अर्थात अश्लीलता भरी पड़ी हैं, लेकिन जो ऐसा कहते हैं शायद बिहारी को ढंग से पढ़े नहीं है । हाँ, यह सच हैं कि बिहारी के यहाँ प्रेम के उस रूप का चित्रण देखने को मिलता हैं जो प्रेम के उत्कर्ष में हमें देखने को मिलता हैं, लेकिन वहाँ भी सामाजिक ताने बाने और सामाजिक मर्यादाओं का उतना ही ख्याल रखा गया हैं जितना कि छायावाद के लेखकों ने अलंकार आदि का रखा ।
   बिहारी को समझने के लिए उनके कुछ दोहों का मूल्यांकन करना बेहद जरूरी तब हो जाता है जब आप स्वयं की भावनाओं से परे कवि की बात कवि के ही भाव में आप तक पहुँचाना होता हैं ।
"कर उठाय घूंघट करत उघरत पट गुझरोट ।
सुख मोटैं लूटी ललन लखि ललना की लोट ।।"
उपयुक्त पंक्ति के माध्यम से बिहारी कह रहे हैं कि जब नायक को सामने से आता देख नायिका अपने हाथ से अपने घूँघट के पट को सरकाती है तब उस अदा से नायिका नायक को मोह लेती है और वह स्वर्ग सुख का अनुभव करता है और वहीं इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि जब मुख पर वह घूँघट डालने के लिए साड़ी के आँचल को सरकाती है तब उसके वदन के दूसरे हिस्से से साड़ी का कुछ भाग हटता हैं और उसी क्षण नायिका के पलटते देख नायक सभी सुख को लूट लेता है, यहाँ पर नायिका के सौंदर्य का तो भरपूर वर्णन किये हैं लेकिन उनके यहाँ की नायिका पर्दे में सुंदर दिखती है । या हम यूँ कहें कि पर्दे की ओट में जब स्त्री होती हैं, तब पुरुष वर्ग के मन में भी उसके चेहरे को देखने की लालसा उमंग भर रही होती है और उस समय पुरुष उसकी हर अदा से उसकी सुंदरता को मापता है । सुंदरता का अर्थ केवल गोरा होने या फैशनेबल दिखने से नहीं अपितु हमारे चाल ढाल से होती है ।
बिहारी का ही एक और दोहा को लेते हैं
ऐचित सी चितवनि चितै भई ओट अलसाय ।
फिरि उझकनिकौं मृगनयनि दृगनिलगनिया लाय ।।
इसका भावार्थ है कि नायक को देखते नायिका पर्दे के ओट में छिपकर नायक को देखने के लिए झाँकती हैं, और नायक की भी लालसा होती है कि वह नायिका को देख सकें ।
       आज आधुनिक परिपेक्ष्य में अगर हम कहें तो सुंदरता का प्रतिमान तो नहीं बदला है लेकिन आज हम खुद के नग्नता में ही सुंदरता को ढूंढने चले हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे "कस्तूरी कुंडली बसे, मृग ढूंढे वन माही ।" आज भी भारतीय संस्कृति या यूँ कहें तो हमारी भारतीयता का पहचान ही हैं संस्कृति ।



शेष अगले अंक में.........

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