Skip to main content

Posts

Showing posts from October, 2018

मैंने देखा है

मोहब्बत मुक़म्मल हुई उसी की जिसमें दूरियां दरम्यान थी मैंने तो अक्सर नज़दीकियों में इश्क़ को टूटते, बिखरते देखा है जिनके साथ खाई थी कसमें साथ उम्र भर निभानें की मैं हर वक़्त उस इंसान को गैरों तलब बदलते देखा है पिलाकर सहज रस जीवन का उसने फेंक दिया कचरे को मैं उस कचरे को भी उम्र भर पीने को तड़पते देखा है जब खुद के मद में मदहोश हसीना कोई तोड़ती हैं पत्थर दिल फिर उस पत्थर को भी जीवन तलक मोम सा पिघलते देखा है छोड़ देते हैं साथ जिसका ज़माने के सब लोग ज़माने से अलग उसे हर रोज निखरते देखा है पिघल कर बह रही है जो अब मोम की दरिया पत्थर थी, वह उसे मैंने किसी के ठोकर से बिखरते देखा है जब खुद के मैं से हम हुए थे हम होकर भी केवल हम बचें छीन लिया ज़माने ने मुझसे मुझको मैंने खुद को हर वक़्त छिटकते देखा है किसी की ठोकर से हम यूँ पहुँच गए बर्बादी के किनारे उसने कहा था, बर्बाद हो जाओगे इश्क़ में फिर बाद में उसे ही बात से मुकरते देखा है इश्क़ की इतनी इबादत किसी गैर के लिए कौन करता बन गया गैर सुनते हुए प्यार का गीत बिखेर कर मुझको उसे, लश्कर में मुस्कुराते देखा है ...

बदलता इश्क़

वक़्त बदलते ही चेहरे पर चढ़ा लेते हैं नक़ाब या परवरदिगार चेहरे के पीछे चेहरा बनाने लगा इश्क़ में रुसवाईयाँ कुछ इस क़दर बढ़ रही देख बदलता रंग इंसानों के गिरगिट लजाने लगा कहीं दूर बजते थे ढोल खुशियों के ज़माने में वहाँ शहनाइयाँ भी मातमी धुन बजाने लगा शोला सा धधक उठा हैं, मेरे जान के भीतर इंसान पीठ के पीछे,  मोहब्बत फ़रमाने लगा जिसे चाहो तुम जान से ज़्यादा, कद्र करते नहीं वो अब लगा कर गले से तुमको, खंज़र पीठ में धसाने लगा मिट जाने पर हसरतें सारी इस दुनिया से मोहब्बत की चाह में इंसा दर-दर भटकने लगा किसी के ख़्वाब को सजाना, थी एक चाह मेरी वह इंसा बदल गया, ख़्वाब दूसरा दिखाने लगा मुझे मारकर जमाने में, मुझमें जिंदा किया मारकर ठोकर ज़माने को, मैं भी इतराने लगा ख़ाक में मिल गई, वह कोशिशें सारी आख़िर जब इंसान बदल गया, तो रुतवा बदल गया

इश्क़ आजकल

नफ़रतों के इस दौर में, तुम इश्क़ की बात करते हो ! ओ मोहब्बत के पुजारी, तुम भी कमाल करते हो ! तुम गला कर देह अपनी, उस बेवफ़ा को क्यों याद करते हो ? तुम्हें छला गया हैं, अपनी बर्बादी को क्यों याद करते हो ? ओ मोहब्ब्त के पुजारी, तुम भी क्या बात करते हो ! सुनें हो क्या कभी, किसी फ़टे ढ़ोल की आवाज़ ? मिली हैं मंजिल क्या कभी उसे, जिसने करी नहीं आगाज़ ? तुम भी कितने बेवकूफ़ नज़र आते हो, पत्थर से रब से अपनी फरियाद करते हो ! ओ मोहब्बत के पुजारी, तुम भी क्या बात करते हो ! उलझ कर रह गई थी, तेरी कलम गोरी के बालों में, तेरे दिन व रात कट जाती , नैन गुलाम थे उसके गालों के । कैसे फूँक दी तुमने वो तराना, कृष्ण के मुरली में ? स्वयं की बर्बादी को तुम, आबाद कहते हो ! ओ मोहब्बत के पुजारी, तुम भी क्या बात करते हो ! तुम्हें पता नहीं, दुनिया कितना बदल गई है ? प्यार के मतलब को, धन निगल गई है । जब इश्क़ करना तो, अब थोड़ा सम्भल के , क्यों अपने हाथ से कुल्हाड़ी, अपने पैर पर करते हो ! ओ मोहब्बत के पुजारी, तुम भी क्या बात करते हो ! जला दिए घर अपने इश्क़ के राह में तो क्या, चाहते हो तेरी महबूबा भी जला ड...

टमाटर और बैंगन का इश्क़

यह कहानी जो सुनने में थोड़ी अटपटी तो लगेगी लेकिन अगर हम सिर्फ इसे एक कहानी के तौर पर पढ़े तो मज़ा आएगा ऐसा आशा करता हूँ । यह कहानी जीवन के दो सबसे खास दोस्त प्रगति मधुप और अंजली मिश्रा को समर्पित । यह कहानी है टमाटर और बैंगन की । जी हाँ, सब्जी टमाटर और बैंगन की । आज टमाटर दुःखी मन से मगर तेज कदमों से आगे बढ़ रही है, दुःखी इसलिए क्योंकि आज उसे अपना घर छोड़ कर पराये घर को जाना पड़ रहा है, जो कभी चाहा न था । अरे भैया बात हो रही है, विद्यालय छोड़ने की, आज पुराने विद्यालय को छोड़कर एक नए नवेले विद्यालय में जाना था जहाँ की संस्कृति कुछ मिलती तो बहुत जुदा-जुदा है । ठीक उसी प्रकार जैसे किसी लड़की को शादी के बाद अपना घर छोड़ पति के घर जाना पड़ता है और वहाँ उसके सभी पहचान को बदल दिया जाता है, और अब वह ससुराल से जानी जाती है, इस कारण टमाटर भी दुःखी है, लेकिन खुश इस वजह से कि आज उसके जीवन का बहुत अहम दिन है । टमाटर अपने दोस्त भिंडी और टिंडे के साथ थी परन्तु उसे क्या पता कि उसका पीछा इसी गली के दो लफंगे, यानी बैंगन और मूली कर रहे है, और सामान्य इंसानी छात्र की तरह लाल वाली तेरी, हरी वाली मेरी तय हो जाता है...

सुंदरता और उसके प्रतिमान

इस पोस्ट का मकसद किसी के मन(भावनाओं) को ठेस पहुँचाना नहीं हैं । यह पूर्ण रूप से किताबों के अध्ययन पर आधारित हैं, इसलिए यह कहकर कि मैं स्त्री के वेश भूषा के मामले में दकियानूसी ख़्याल रखता हूँ , मेरे ऊपर कोई आरोप न मढ़े ।       " सुंदरता पर्दे में ज्यादा सुंदर लगती हैं"                                                  :-  बिहारी जब आप बिहारी के दोहों का अध्ययन करेंगे तो स्वभाविक हैं आपको यह देखने को मिलेगा बिहारी जगह-जगह नायिका के सौंदर्य वर्णन करते समय उन्होंने नायिका को पर्दे के भीतर रखा हैं । इसका हम यह कतई मतलब नहीं लगा सकते कि बिहारी उस समय के तत्कालीन समाज का ही निरूपण कर रहे थे, अगर ऐसा होता तो शायद उनकी भी कविता(दोहों) को उन सैकड़ों गुमनाम कवियों के कृतियों की तरह काल के गर्त में दबा दी गई होती । आज हम जिस प्र...