खैर, भला हो उन सभी का जो BHU को अपने बाप की जागीर समझ बैठे हैं । अरे भैया हम अपने बाप की जागीर में चाहे आग लगाए चाहें बम फोड़ें आप कौन होते हैं .......? कुछ यहीं हाल हैं दान के पैसों से निर्मित, महामना की तपोस्थली सर्व विद्या की राजधानी और काशी का दिल कहे जाने वाले काशी हिंदू विश्वविद्यालय का ...।
किसको परवाह है कि हम जो कर रहे हैं वह सीधे तौर पर उस महामना का अपमान है जिन्होंने अपने जीवन को भारत के निर्माण के लिए समर्पित कर के और रात दिन के अथक प्रयास से दान का एक-एक पैसा जोड़कर इस विश्वविद्यालय का निर्माण कराया, और क्या वह यहीं देखने के लिए इस पुनीत कार्य को अंजाम दिए थे कि इसी विश्वविद्यालय की नमक रोटी खाने वाले इसे अपने बाप की जागीर के तौर पर बर्बाद कर देंगे । विश्वविद्यालय से मोटी तनख्वाह पाने वाले प्राध्यापक, प्रॉक्टोरियल बोर्ड के चाचा (जिनको खाकर चौड़ियाने के अलावा कोई काम नहीं ) और इनके संरक्षण में रह रहे छात्रों को जब मन हुआ दीवाली का बम-बम खेलने लगे, जब युद्धाभ्यास का मन हुआ लाठियां भांजी, जब मन हुआ होली का पथराव करने लगे, जब रौशनी कम हुई दो-चार गाड़ियां फूंक दी, जब हल्की ठंड का अनुभव हुआ पूरे विश्वविद्यालय को सुलगा कर अपने हाथ पैर सेंक लिए । वाह भाई वाह, अपना भारत देश भी अजीब है, और उतना ही अजीब हो गया हैं सर्व विद्या की राजधानी BHU । कहीं कुर्सी के लिए दंगे कराए जाते हैं तो कहीं कुर्सी के लिए छात्र गुट को भिड़ाया जाता हैं, कहीं वोट बैंक के लिए तुस्टीकरण की जाती हैं, कहीं कुर्सी खतरे में देख आस्तीन के साँपो को छाती पर तांडव नृत्य करने को छोड़ दिया जाता हैं, कहीं अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए भारत बंद किया जाता हैं, कहीं कुर्सी बचाने के लिए कॉलेज बन्द कर दिया जाता हैं । बावलियों पर कारवाई के बदले यहाँ विश्वविद्यालय को ही बन्द कर दिया जाता है ताकि आग की लपट कुर्सी तक न पहुँचे क्योंकि पिछले साल ही तो देखा था, खतरों के खिलाड़ी बनने चले थे, एक जुआड़ी की तरह भगा दिए गए ।
अगर हम बात करें अभी हुए हालिया घटने की तो मैंने दोनों पक्षो को सुना क्योंकि अगर दोनों पक्षों को न सुना जाएं तो पक्षपात की बू आती हैं । चूंकि मैं खुद कला संकाय से हूँ तो वहाँ हो रहे गतिविधियों को आसानी से जान सकता हूँ वहीं दूसरी तरफ मेरे दोस्त मेडिकल में ही हैं उनसे पता चला की बात क्या हुई थी, लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि इस बवाल को शुरू करने वाले छात्र जो विधि संकाय के बताएं जा रहे थे, उनका इस पूरे घटनाक्रम से नाम गायब हैं, न ही प्रशासन द्वारा करवाई के नाम पर हॉस्टल खाली करने का आदेश उनके लिए जारी होता हैं । प्रथम दृष्टया तो यह मालूम पड़ता हैं कि यह एक सोची समझी साजिश का हिस्सा हैं, क्योंकि कल सुबह तक अखबार और आम छात्र से लेकर सुरक्षा वाले चाचा तक के मुँह से विधि संकाय और मेडिकल की झड़प से शुरू हुई यह घटना अब केवल कला संकाय और मेडिकल वालों की बताया जा रहा, आखिर कहाँ गए विधि संकाय के वे गुंडे जो इसकी शुरुआत किये, और क्या यह बिना सोची समझी साजिश के पूरे घटनाक्रम से यूँ गायब हो जायेंगे जैसे हवा में कपूर ....? अगर निष्पक्ष तरीके से हम देखे तो पाएंगे कि यह एक सोची समझी साजिश थी BHU को सुलगाने की और अपनी कुर्सी को सलामत रखने की । क्योंकि पिछली बार तो अर्थात एक दिन पहले हुए मामूली झड़प की जानकारी लेने जिलाधिकारी और SSP आधी रात को परिसर आते हैं और पूरी रात बैठकों का दौर चलता है, वहीं उसके अगले ही दिन इतनी बड़ी घटना हो जाती हैं और सभी अधिकारी घोड़ा बेच कर सो रहे थे । आते है अगले दिन सुबह जब तलक प्रॉक्टोरियल बोर्ड के सह पाए गुंडे अपना काम कर चुके होते है , फिर चाय पर चर्चा होती है और खानापूर्ति के लिए निर्दोष छात्रों पर लाठीचार्ज की जाती है ताकि जो रिपोर्ट बनें उसमें खुद को जायज ठहराया जा सके ।
किसको परवाह है कि हम जो कर रहे हैं वह सीधे तौर पर उस महामना का अपमान है जिन्होंने अपने जीवन को भारत के निर्माण के लिए समर्पित कर के और रात दिन के अथक प्रयास से दान का एक-एक पैसा जोड़कर इस विश्वविद्यालय का निर्माण कराया, और क्या वह यहीं देखने के लिए इस पुनीत कार्य को अंजाम दिए थे कि इसी विश्वविद्यालय की नमक रोटी खाने वाले इसे अपने बाप की जागीर के तौर पर बर्बाद कर देंगे । विश्वविद्यालय से मोटी तनख्वाह पाने वाले प्राध्यापक, प्रॉक्टोरियल बोर्ड के चाचा (जिनको खाकर चौड़ियाने के अलावा कोई काम नहीं ) और इनके संरक्षण में रह रहे छात्रों को जब मन हुआ दीवाली का बम-बम खेलने लगे, जब युद्धाभ्यास का मन हुआ लाठियां भांजी, जब मन हुआ होली का पथराव करने लगे, जब रौशनी कम हुई दो-चार गाड़ियां फूंक दी, जब हल्की ठंड का अनुभव हुआ पूरे विश्वविद्यालय को सुलगा कर अपने हाथ पैर सेंक लिए । वाह भाई वाह, अपना भारत देश भी अजीब है, और उतना ही अजीब हो गया हैं सर्व विद्या की राजधानी BHU । कहीं कुर्सी के लिए दंगे कराए जाते हैं तो कहीं कुर्सी के लिए छात्र गुट को भिड़ाया जाता हैं, कहीं वोट बैंक के लिए तुस्टीकरण की जाती हैं, कहीं कुर्सी खतरे में देख आस्तीन के साँपो को छाती पर तांडव नृत्य करने को छोड़ दिया जाता हैं, कहीं अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए भारत बंद किया जाता हैं, कहीं कुर्सी बचाने के लिए कॉलेज बन्द कर दिया जाता हैं । बावलियों पर कारवाई के बदले यहाँ विश्वविद्यालय को ही बन्द कर दिया जाता है ताकि आग की लपट कुर्सी तक न पहुँचे क्योंकि पिछले साल ही तो देखा था, खतरों के खिलाड़ी बनने चले थे, एक जुआड़ी की तरह भगा दिए गए ।
अगर हम बात करें अभी हुए हालिया घटने की तो मैंने दोनों पक्षो को सुना क्योंकि अगर दोनों पक्षों को न सुना जाएं तो पक्षपात की बू आती हैं । चूंकि मैं खुद कला संकाय से हूँ तो वहाँ हो रहे गतिविधियों को आसानी से जान सकता हूँ वहीं दूसरी तरफ मेरे दोस्त मेडिकल में ही हैं उनसे पता चला की बात क्या हुई थी, लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि इस बवाल को शुरू करने वाले छात्र जो विधि संकाय के बताएं जा रहे थे, उनका इस पूरे घटनाक्रम से नाम गायब हैं, न ही प्रशासन द्वारा करवाई के नाम पर हॉस्टल खाली करने का आदेश उनके लिए जारी होता हैं । प्रथम दृष्टया तो यह मालूम पड़ता हैं कि यह एक सोची समझी साजिश का हिस्सा हैं, क्योंकि कल सुबह तक अखबार और आम छात्र से लेकर सुरक्षा वाले चाचा तक के मुँह से विधि संकाय और मेडिकल की झड़प से शुरू हुई यह घटना अब केवल कला संकाय और मेडिकल वालों की बताया जा रहा, आखिर कहाँ गए विधि संकाय के वे गुंडे जो इसकी शुरुआत किये, और क्या यह बिना सोची समझी साजिश के पूरे घटनाक्रम से यूँ गायब हो जायेंगे जैसे हवा में कपूर ....? अगर निष्पक्ष तरीके से हम देखे तो पाएंगे कि यह एक सोची समझी साजिश थी BHU को सुलगाने की और अपनी कुर्सी को सलामत रखने की । क्योंकि पिछली बार तो अर्थात एक दिन पहले हुए मामूली झड़प की जानकारी लेने जिलाधिकारी और SSP आधी रात को परिसर आते हैं और पूरी रात बैठकों का दौर चलता है, वहीं उसके अगले ही दिन इतनी बड़ी घटना हो जाती हैं और सभी अधिकारी घोड़ा बेच कर सो रहे थे । आते है अगले दिन सुबह जब तलक प्रॉक्टोरियल बोर्ड के सह पाए गुंडे अपना काम कर चुके होते है , फिर चाय पर चर्चा होती है और खानापूर्ति के लिए निर्दोष छात्रों पर लाठीचार्ज की जाती है ताकि जो रिपोर्ट बनें उसमें खुद को जायज ठहराया जा सके ।
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